सीमांत उत्तरकाशी और टिहरी जिले के जंगल इन दिनों नीलकुरेंजी के फूलों से गुलजार हैं। ठीक 12 साल बाद गढ़वाल क्षेत्र के जंगलों में नीलकुरेंजी के फूलों ने अपनी रंगत बिखेरी है। कुछ कमी है तो कुदरत के इस खूबसूरत नजारे का दीदार करने वालों की। सरकारी तंत्र की उपेक्षा के कारण नीलकुरेंजी केरल की तरह उत्तराखंड में प्रसिद्धि नहीं पा सका है। जबकि, पहाड़ में इस फूल को बेहद शुभ माना जाता है। जिस वर्ष यह फूल खिलता है उस वर्ष को नीलकुरेंजी वर्ष भी कहते हैं। औषधीय गुणों से भरपूर नीलकुरेंजी को उत्तरकाशी में अडगल कहा जाता है।
नीलकुरेंजी के नीले-बैंगनी रंग के फूलों ने इन दिनों धरती का शृंगार किया हुआ है। उत्तरकाशी वन प्रभाग, अपर यमुना वन प्रभाग व टौंस वन प्रभाग के अलावा टिहरी वन प्रभाग के जंगलों में सड़कों के किनारे से लेकर दूर जंगलों तक नीलकुरेंजी अपनी आभा बिखेर रहा है। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय उत्तरकाशी के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर महेंद्र पाल परमार बताते हैं कि नीलकुरेंजी स्ट्रॉबिलेंथस की एक किस्म है। भारत में इसकी काफी प्रजातियां मौजूद हैं।
यह फूल बारह साल के अंतराल में खिलता है, इसलिए इसे इसे दुर्लभ फूलों में शुमार किया गया है। प्रो. परमार के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ों में समुद्रतल से 1100 से 1500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाने वाले नीलकुरेंजी के खिलने का समय अगस्त से नवंबर की बीच है। इसके फूल से लेकर पत्तों तक में कई औषधीय गुण हैं। मई-जून में जब जंगलों चारा-पत्ती खत्म हो जाती है, तब यह पशुओं के लिए चारे का काम भी करता है।